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Showing posts from January, 2020

नरगिस के फूल सरीखे, सुन्दर आंखों वाली लड़की के जन्मदिवस पर!

मुझे वह पहली कक्षा में नहीं मिली थी। दरअसल ‛पहली कक्षा’ मैंने उस स्कूल में पढ़ा ही नहीं, उस स्कूल में तो मैं ‛दूसरी’ में गया था। वह, दूसरी और तीसरी कक्षा में भी नहीं आई थी, वह तो आई चौथी में । अक्सर मैं स्कूल-सत्र शुरू होने के काफी दिन बाद स्कूल जाता था । ये जुलाई 2005 का मध्य था, और मेरा कक्षा चौथी के सेसन का पहला दिन, जब मुझे पता चला कि क्लास में एक बेहद खूबसूरत सी दिखने वाली एक लड़की आई है, मैं क्लास में गया तो वाकई एक ‛क्यूट’ सी दिखने वाली लड़की, लड़कियों के बेंच में दूसरे नम्बर की सीट पर ठीक बीच में बैठी थी । मैंने गौर से देखा तो उसके बाल महज़ उसके कंधों को छू रहे थे, कंधे को छूते उसके सुलझे बालों में मैं उलझ गया था पहली बार! जिसे देख कर मुझे पहली बार लगा कि मुझे इससे बात करनी चाहिए, पर अक्सर मेरा शर्मीला स्वभाव रोड़ा बन जाता था, उससे बात करने में । फिर एक दिन! जब वो स्कूल आ रही थी, तो उससे पहली बार मैंने अपने रूम और स्कूल के पास वाले मैदान में मैंने बात की । क्या बात की ये तो याद नहीं लेकिन हाँ, उस दिन से मेरी उससे यदा कदा बात होने लगी । ऐ संदेशवाहक मेघ! जैसे तुमने कालिद

गर्मियों की साँझ

         गोविंदगढ़ तालाब, रीवा. 26.03.2014 में रे लिए, गर्मियों की शामें अक्सर उदासीनता से भरी होती हैं । साँझ की रक्तवर्णी रंगीयता जाने क्यों मन को अवसाद से भर देती है! जबकि हम जानते हैं, कि कल सूरज फिर निकलेगा, फिर घाम होगा और फिर साँझ । नियति का यह क्रम नियत है । जाने क्यों, सूर्य का विदा होना, अपने साथ उत्सुकता और उन्मुक्तता को भी साथ ले जाता है! और भर देता है एक अज्ञात व्याकुलता से मुझे । “ मैं देख रहा हूँ, सूर्य-अस्त होते पश्चिम में, उभर रहा वैराग्य अचानक, मन-अवसादी! हाय! विभा, तेरा जाना यूँ तोड़ रहा है, ज्यों, दिनेश मेरा अन्तस् ही निचोड़ रहा है ।” ये सच है, कि रात इस धरित्री को एक नए रंग में रँग देती है, किन्तु इसका आरम्भ तो साँझ से ही होता है न! तब,क्या यह रंगीयता अपने साथ असारता का भी बोध लाती है? क्या यह विषाद, वस्तुओं को स्पष्ट न देख पाने की व्यथा का परिणाम है? क्या मानव ने दिन को इतना स्वीकार लिया है, कि दिन के प्रकाश का विदा होना, उसके स्वयं के अंश का विदा होना हो जाता है? या फिर इसलिए, कि यह प्रतीक है मृत्यु का, और मृत्यु की तो सहधर्मिणी है ही उदासी । इ

डूबता सूर्य, साँझ और मैं...

मुझे गर्मियों में साँझ के समय सूरज का पीला प्रकाश हमेशा से पसंद है, इसीलिए मुझे आकर्षित भी करता है । जब शुष्क वातावरण के साथ में लू के मद्धम होते थपेड़े चेहरे को स्पर्श करते हैं, तो सिहरन से पूरा बदन रोमांच से भर जाता है, परिपक्व हो चुकी सूर्य-रश्मियाँ जिस कोमलता से मेरे शरीर को छूती है, उस छुअन से मात्र मेरा शरीर ही नहीं, मेरा मन और स्वयं मैं भी इस सूर्य और वायु-स्नान से शुद्ध हो कर आनंदित हो जाता हूँ । मैं सूर्य से स्वयं तक पहुँचती किरणों को देखता हूँ और जुड़ जाता हूँ, सूर्य से इन रश्मि-सेतु के द्वारा और ठीक इसी समय स्पर्श करती वायु मुझे धन्यता से भर देती है । जब भी मुझे ग्रीष्म की संध्या का विचार आता है तो जागृत हो उठता है मेरी स्मृतियों में, तीन ओर से पहाड़ों से घिरा " त्रिगिरी " कस्बा । इसकी विशेषता ही ये है कि, यह तीन ओर से पहाड़ों से घिरा हुआ है, जिससे अमूमन चलने वाली हवाएँ तीनों पर्वतों से टकरा कर वापस पूर्व दिशा की ओर मुड़ जाती हैं । टकराने से बने दबाव के कारण इनकी रफ्तार सामान्य से कहीं अधिक होती है । इसीलिए, ग्रीष्म की साँझ में वायु-स्नान का जो आनंद यहाँ मिलत