कहा न ! मुझे नहीं रास आतीं नक्काशी से सुसज्जित दीवारें । मुझे तो रास आती हैं प्रकृति की लावण्यमयी सौंदर्यता । मुझे रास आते हैं ऐसे शहर जो प्रकृति की गोद में समाए होते हैं जैसे सतपुड़ा की गोद में ' पचमढ़ी ' , जैसे पहाड़ों से घिरा सीधी ,और जैसे मेरा गाँव । जैसे अमरकंटक, जहाँ चौबीसों घंटे नर्मदा की कल-कल का सप्तसुरी संगीत तारतम्यता से बजता हुआ आपके कर्णपटलों में पहुँचता है और आप अनायास एक स्वर्गीय संगीत में सुधि खोकर खो जाते हैं । जहाँ पहुँचते ही कल्पनाओं से जेहन में उतरकर सच लगने लगती है नर्मदा और सोन की कहानी । जहाँ प्रेम यथार्थ में परिणित होकर दिला जाता है राधा कृष्ण के प्रेम की मधुर याद । जहाँ जनश्रुतियाँ साँस लेती दंतकथाओं के यथार्थ से ऐसे रूबरू होती हैं जैसे हमने भी तो देखा हो इन्हें हूबहू इन्ही कहानियों की तरह । वस्तुतः हम समा जाते हैं इन जनश्रुतियों के किरदारों में या ये कहूँ की हम किरदारों में जीने लगते हैं । दीवारें तो बस गवाह होती हैं किसी कहानी की किन्तु ऐसी जगहों में आप किरदारों को स्वयं में जीवित पाते हैं । आप स्वयं के करीब होते हैं , सौंदर्य के नित नए प्रतिमा
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