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Showing posts from June, 2020

“..क्योंकि जिंदगी अपने निकृष्टतम रूप में भी मौत के सर्वश्रेष्ठ ढंग से बेहतर होती है”- कैसे?

अनुराग भइया का लेख पढ़ने के लिए इसे क्लिक करें मैं ने अनुराग भइया का लेख पढ़ा । जिसमें उन्होंने लिखा था,  “जिंदगी अपने निकृष्टतम रूप में भी मौत के सर्वश्रेष्ठ ढंग से बेहतर होती है ।”  आइए देखते हैं कैसे?  सर्वप्रथम जीवन के मूल्य को समझते हैं, तत्पश्चात मृत्यु के उस पार की सूक्ष्म दुनियाँ के बारे में जानते हैं, आखिर क्या होता है मृत्यु के उस पार! अर्नाल्ड बेनेट ने एक जगह लिखा है कि, ‛सांसारिक सुख जिसे कहते हैं उसका न मिलना ज्यादा श्रेयस्कर है मृत्यु के समय आत्मा की यह धिक्कार सुनने से कि तुममें हिम्मत की कमी थी, तुम ठीक उस समय भाग खड़े हुए जब तुम्हें सर्वाधिक हिम्मत दिखानी थी ।’ डॉ रामधारी सिंह 'दिनकर' “ हिम्मत और ज़िन्दगी” में लिखते हैं कि, ‛ज़िन्दगी के असली मज़े उनके लिए नही हैं जो फूलों की छाँव में सोते हैं. बल्कि फूलों की छाँव के नीचे अगर जीवन का कोई स्वाद छिपा है तो वह भी उन्ही के लिए है जो दूर रेगिस्तान से आ रहे हैं जिनका कंठ सूखा हुआ, होंठ फटे हुए और सारा बदन पसीने से तर है. पानी में जो अमृत वाला तत्व है, उसे वह जानता है जो धूप में खूब सूख चूका है, वह नही जो रेगिस्तान में कभी

विदा!

  क्या बस शरीर के दूर हुए जाने में छिपी विदा है? या फिर मन के टूटने और जुड़ने में छिपी विदा है? यदि शरीर के दूर हुए जाने से उदित विदा है! तो दिनेश से इतनी दूर भी, कैसे जुड़ी विभा है? कुछ तो है सूक्ष्म, जो नग्न नयन की हद से दूर खड़ा है! जिस तरह सूर्य-शशि को विलोक,खिंच जाता जलधि सदा है! - विनय एस तिवारी

कनकाभ-मेघ

मैं ने नहीं देखा है हिमालय का स्वर्णमयी शिखर । मैंने उसका सौंदर्य प्रत्यक्षानुभूत नहीं किया है, किन्तु मैंने उसे देखने पर होने वाले अनुभव को महसूस किया है। क्योंकि मैंने देखा है ‛कनकाभ-मेघ!’ हाँ, जिस प्रकार सूर्यातप से नहाए गिरीराज स्वर्णमयी दिखते हैं, ठीक उसी प्रकार जब बरसात के मौसम में दिनेश आच्छादित होते हैं श्यामल बादलों से, और उनकी रश्मियाँ सीधे धवल कपासी बादलों पर पड़ती हैं, तो ये धवल मेघ हो जाते हैं स्वर्णमयी । और वह श्यामल-स्वर्णमयी बादलों का दृश्य नीले आकाश में दिखता है तो आँखें विस्मय से भर जाती है, मन नियति की इस अद्भुत सजीव चित्रकारी से मोहित हो जाता है, और अनायास स्वर फूट पड़ता है ‛अहा!’                                            (कनकाभ-मेघ, प्रतीकात्मक तस्वीर) यह विस्मय लगभग ऐसे ही होता है जब पहली बार कोई बालक-मन पुस्तकों से इतर, वास्तविकता में देखता है पहली बार ‛इंद्रधनुष’ । आह! उसकी अद्भुत रंगीयता बालक-मन को ऐसे मोह लेती है जैसे ऋषियों को मोह लेता है सच्चिदानंद ‛ब्रह्म’ का अनुभव । तभी तो उसे उपनिषदों ने रसोवैसः कहा है । बालक के मन को यह अलौकिक रंगीयता से भरा इंद्रधनुष भी