(गर्मी की एक साँझ) मेरे लिए, गर्मियों की शामें अक्सर उदासीनता से भरी होती हैं । यह गर्मियों की साँझ ही है , जब मेरे लिए एकांत की चाहना सर्वाधिक प्रबल होती है । साँझ की रक्तवर्णी रंगीयता, इसके साथ आकाश की अभेद्य आकाशीय-नीलिमा, और हर तरफ सूखे-वृक्ष, जिनकी हरित-पत्तियों को तपन ने भष्म कर दिया है, इन्हें देख कर जाने क्यों मन अवसाद से भर जाता है! जबकि हम जानते हैं, कि कल सूरज फिर निकलेगा, फिर घाम होगा और फिर साँझ । नियति का यह क्रम नियत है । जाने क्यों, सूर्य का विदा होना, अपने साथ उत्सुकता और उन्मुक्तता को भी साथ ले जाता है! और भर देता है एक अज्ञात व्याकुलता से मुझे । “मैं देख रहा हूँ, सूर्य-अस्त होते पश्चिम में, उभर रहा वैराग्य अचानक, मन-अवसादी! हाय! विभा तेरा जाना, यूँ तोड़ रहा है, ज्यों, दिनेश मेरा अंतस ही निचोड़ रहा है ।” ये सच है, कि रात इस धरित्री को एक नए रंग में रँग देती है, पर इसका आरम्भ तो साँझ से ही होता है न! क्या यह रंगीयता अपने साथ असारता का भी बोध लाती है? क्या यह विषाद, वस्तुओं को स्पष्ट न देख पाने क
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