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Showing posts from August, 2017

डॉ ऋषिकांत पाण्डेय - एक विश्वविद्यालय

प्रोफ़ेसर ऋषिकांत इलाहबाद विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग के विभागाध्यक्ष हैं.. छोटी कद-काठी ,सफ़ेद बाल.. उनकी ऊर्जा उनके निकट आते ही महसूस होने लगती है । हालाँकि मेरी बुद्धि अभी इतनी विकसित नहीं हुई है कि मैं दर्शन और दर्शन के इतने बड़े विद्यार्थी के विषय में विचार व्यक्त कर सकूँ... लेकिन ये उनके प्रति प्रेम है जो किसी दायरे या सीमा से बढ़कर मजबूर करता हैं उनपर मानसिक तौर पर समर्पण के लिए..उनकी श्रेष्ठता समझने के लिए ।  वे स्वयं एनालिटिकल फिलॉसॉफी के विद्यार्थी रहे हैं.. अॉस्ट्रिन के ऊपर उनका रिसर्च भी रहा है...लेकिन जितना बेहतरीन मुईर, विटगेन्स्टिन, क्वाइन, स्ट्रॉसन आदि को पढ़ाते हैं उतना ही बेहतरीन इंडियन फिलॉसॉफी या फिलॉसॉफी ऑफ़ रिलिजन पढ़ाते हैं.. उनकी तो एक पुस्तक तक फिलॉसॉफी ऑफ़ रिलिजन पर है "धर्म दर्शन" जो पियर्सन पब्लिकेशन से प्रकाशित है । मुझे लगता है धर्म दर्शन पर रूचि रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को यह पुस्तक पढ़नी चाहिए.... मुझे उनके निकट जाने का सौभाग्य तो प्राप्त नहीं हुआ किन्तु मैं उनकी क्लासेज में जरूर उपस्थित रहता था.. मुझे उनकी क्लास में एक अनिर्वचनीय मज़ा आता था.

उस शाम

ब हुत दिन से मेरा मन कर रहा था कि गोविंदगढ़ में एक शाम गुजारूं.. इसलिए नहीं..कि वह मध्यप्रदेश के सबसे बड़े तालाबों में एक है , बल्कि इसलिए क्योंकि यह तालाब ज़िन्दगी का एक बिम्ब उकेर देता है.. प्राकृतिक परिदृश्य अनुपम है । मेरे 12वीं का आखिरी पेपर गणित का था जो दुबारा 24 मार्च 2014 को हुआ.. वो दिन मेरे स्कूल लाइफ का अंतिम और अविस्मरणीय दिन था.. हमने गोविंदगढ़ जाने रूपरेखा 24 को ही बनाया था लेकिन एक दिन बाद जाना तय हुआ । हम दो लोग थे एक तो मैं ही था दूसरा विराट था । मैं विराट के घर में ही रहता था..और अब हम दोनों अच्छे-खासे दोस्त हैं...। हम उसी की मोटरसाइकल से जा रहे थे......         हम चल पड़े थे प्रकृति की गोद में.. मानो वह हमारा इंतज़ार कर रही हो और हमें गोद में भर लेने को उत्सुक हो.. हम थोड़ा रफ़्तार में जा रहे थे क्योंकि सूरज ढलने वाला था और हमें अंदेशा था कि कहीं सूरज डूब न जाए.. लगभग आधी दूरी पहले से मोटेरसाइकल मैं चला रहा था जब हम उस मोड़ में मुड़ने लगे जो गोविंदगढ़ की ओर जाता है तो वहां कुछ पुलिस वाले दिखे मैं थोड़ा सहमा और आगे बढ़ गया.......           सचमुच वह तालाब बहु

एक उलझन सी मन में

एक उलझन सी मन में हुई आज फिर ,आज फिर मैं पूरी रात सो न सका , जिससे बे-इन्तहां है मोहब्बत हुई ,खुद को उसकी अदा में भिगो न सका, जब भी सोया हूँ रातों की हदबंदी में ,है छलक जाता यादों का एक साज़ फिर धीरे-धीरे चलो री पवन आज फिर, देखो पतवार भी आज प् न सका.. उसकी मौजूदगी के हर एहसास में प्यार की बांसुरी मैं बजा न सका.. चाँद तू भी बढ़ा रौशनी खुद की तो !  उसकी वेड़ी में जो फूल गूंथा था मैं ,गिर गया हो कहीं भूल से आज फिर.. आज फिर मैं उसे ढूढ़ने चल पड़ा..आज फिर मैं पूरी रात सो न सका ।    ✍ विनय इस तिवारी ©