Skip to main content

Posts

Showing posts from July, 2020

जब रात्रि बिखेरती है दूब की नोक पर मोती

ओ स की बूँद मुझे सबसे प्रिय लगती है, दूब की नोक पर । तिस पर मध्य रात्रि में पूर्णिमा की चाँदनी, जिसका प्रकाश ओस की बूँदों पर पड़ते ही प्रकीर्णित होता है, और बिखेर जाता है मोतियों सी चमक । मैंने तो जब घास पर ओस की बूँदों को देखा.., तो अनायास ही कह उठा  ‛मोतियों का गाँव!’ जैसे नैसर्ग ने दूब की नोक पर सजाई हो ओस के दीपों की वर्णमाला । जिसे कोई प्रकृति खोजी, कवि या दार्शनिक ही पढ़ सकता है, और बुन सकता है इस वर्णमाला से अनन्त किताबें । वो किताबें जो अक्षर से विहीन हों, क्योंकि भाषा की सीमा तो इस संसार तक सीमित है । इसके ऊपर की सत्ताओं को ‛अनुभव’ किया जा सकता है मात्र । ये दीपक प्रकृति का सौंदर्य है,श्रृंगार है धरित्री का । जिसे मात्र अपने अन्वेषियों के लिए ही सजाती हैं वसुंधरा । जैसे ललनाएँ सजती हैं, अपने सौंदर्य के अन्वेषी के लिए, अपने प्रियतम के लिए, या जैसे मूर्तियाँ अपने शिल्पकार के लिए, जो उकेरता है उनका सौंदर्य । कोई छैनी से, तो कोई शब्दों से । इसी में इनकी विराटता है, इसी में इनकी श्रेष्ठता है, इसी में इनका सौंदर्य है । -- विनय एस तिवारी

स्नेह और वैराग्य की सीमा रेखा उतनी ही पतली है जितनी आकर्षण और प्रेम की या जितनी क्रूरता और यातना की

                            [ तस्वीर : नृत्य में मग्न बौद्ध भिक्षु ]              " स् नेह और वैराग्य की सीमा रेखा उतनी ही पतली है जितनी आकर्षण और प्रेम की या जितनी क्रूरता और यातना की ।" ...क्योंकि स्नेह से तटस्थ (ऑब्जेक्टिव) हो जाना ही तो वैराग्य है । स्नेह तो वासना से लगभग मुक्त होता है लेकिन फिर भी मोह व्याप्त तो रहता ही है और जब मोह भी विदा हो जाता है तब वैराग्य का जन्म होता है ।  वैराग्य संसार से भागना कदाचित भी नहीं है, जैसा कि कृष्ण कहते हैं, आचार्य रजनीश कहते हैं, बुद्ध कहते हैं । वैराग्य तो कर्म के लिए कर्म करना है, कर्ता भाव से मुक्त होना है । जैसे भक्ति और प्रपत्ति में, भक्ति में भक्त समर्पित रहता है किंतु उसमें परमात्मा से एक आनंद की चाह बनी रहती है किंतु वह चाह समाप्त हो जाती है तब वो अवस्था कहलाती है प्रपत्ति । ठीक ऐसे प्रेम और स्नेह में,  प्रेम वासनाओं के व्याप्ति की अवस्था है किंतु स्नेह, जब प्रेम में वासनाएँ क्षीण हो जाएं । और जब वासनाएँ शून्य हो जाएँ, तब उत्पन्न होता है वैराग्य । वहीं दूसरी ओर, क्रूरता और यातना में भी ऐसा ही फ़र्क़ है,  क्रूरता अन्तरागत है, क

माँ गङ्गा, प्रोज्जवल चाँदनी और अज्ञेय की पुस्तक

प्रयागराज में मेरे द्वारा खींची तस्वीर में माँ गङ्गा, चाँद और चाँदनी आह! सौंदर्य...। बाहर खुली चाँदनी छिटकी थी, इतनी प्रोज्जवल कि निरभ्र आकाश में भी तारा एक-आध ही दिखता था । झील चमक रही थी । रंगों का वह खेल- केवल एक रंग, श्वेत का खेल- बल्कि केवल मात्र आकाश का और उसी की अनुपस्थिति का वह खेल देखकर शेखर स्तब्ध रह गया । झिलमिलाती हुई झील पर धुँधले श्यामल पहाड़, और दूर पर कोहरे सी मधुर स्निग्ध ज्योतिर्मयी हिम-श्रेणी.. उस विस्तीर्ण, अत्यंत निस्तब्ध रात में इस दृश्य को देखते हुए बोध की लहरें-सी उसके शरीर में दौड़ने लगीं; मानो वह इस जीवन के स्वप्न से उद्बुद्ध होकर, किसी ऊँची यथार्थता के लोक में चला जा रहा है.. उसे रोमांच हो आया । उसने आँखें मूँद लीं, मानो आंखें मूँद कर ही वह इस दृश्य को बनाए रख सकता है, खुली आँखों के आगे वह छिन्न हो जाएगा..। #शेखर_एक_जीवनी, भाग दो । - अज्ञेय

फाफामऊ- दो संस्कृतियों का मिश्रण

तस्वीर: फाफामऊ पुल से माँ गङ्गा और उनसे विदा लेता सूर्य फा फामऊ, एक मध्यवर्ती कस्बा है । मध्यवर्ती, ग्रामीण और शहरी संस्कृति का । ग्रामीण संस्कृति जहाँ लोग ज्यादा प्राकृतिक रवैये को अपनाते हैं, वहीं, शहरी बनावटी नयनाभिराम जीवन । दोनों में ठीक उतना ही अंतर है, जितना वन और उद्यान में है, जितना हिमालय, विंध्याचल या सतपुड़ा के वनों और राष्ट्रपति भवन के उद्यान में है । एक प्राकृतिक दूसरा मानवीय शिल्पता से युक्त । दरअसल इसमें समायोजन है, दो जीवन निर्वाह करने के रास्तों का, यह मिलाप बिंदु है इन दोनों जीवननिर्वाह के तरीकों का । जैसे संध्या, (समय में) दिन और रात के बीच की स्थिति है, इसमें दिन का उजाला भी है और रात का अँधेरा भी । फाफामऊ और प्रयागराज को जोड़ता लॉर्ड कर्जन पुल फाफामऊ, गँगा पार करने के बाद पहला बाज़ारीय कस्बा है,जहाँ दूर गाँव से भी और शहर से भी लोग आते हैं अपने आवश्यता की वस्तुएँ खरीदने साथ ही साथ ग्रामीण आते हैं अपनी उत्पादित सामग्रियों को समर्पित करने जनकल्याण के लिए । पाल-पोष कर उत्पादित करके समर्पित कर जाते हैं ये कृषक और ले जाते हैं इसके स्थान पर नई जीवन निर्वाह की सामग्रियाँ । ठ

#फरवरी

【तस्वीर: दोपहर, माँ गङ्गा और चाँदी जैसा सूर्य और रश्मियाँ 】 इ स समय, सूर्य के प्रकाश का रंग पिलछौंह् से श्वेत की ओर निरंतर अग्रसर है, यानी सूर्य देव उत्तरायण होने की ओर अग्रसर हैं, इस समय ठण्ड के विदा लेने और ग्रीष्म के स्वागत की उत्सुकता निरंतर बलवती हो रही है । मुझमें शुष्क और अलसाई साँझ को नग्न आंखों से देखने का कौतूहल बढ़ता जा रहा है । फरवरी मुझे प्रिय है । इसलिए नहीं, कि यह बसन्त का मौसम है । बल्कि इसलिए क्योंकि फरवरी एक ऐसा माह है- जिसमें सूर्य की हम दो छटाएँ देख सकते हैं, एक धूप दूसरा घाम। हम देख सकते हैं, सूर्य द्वारा अस्ताचल की अवस्थित को दक्षिण से पश्चिम की ओर खिसकाते हुए । मैं देख सकता हूँ अपनी आँखों से सूर्य को विदा ले कर जाते हुए, दूर क्षितिज तक । क्योंकि विदा ही तो अंतिम सत्य है । हम सभी मिलते हैं और एक वक्त बाद विदा हो जाते हैं । इसलिए विदा प्रिय है मुझे, क्योंकि किसी के चले जाने से जो व्यक्ति में एक खालीपन उभरता है, वह वास्तविक होता है, बनावटी नहीं । यह धूप से घाम होने की कथा है, विवरण है । धूप, सूर्य का वह प्रकाश है जो कोमल है । जिसके स्नेह-लेप के लिए शीत ऋतु में जाने क

द मोंक हू सोल्ड हिज फेरारी

【 तस्वीर: मेरी दो प्रिय वस्तु, एक तो किताब दूसरी चॉकलेटी चाय !!】 ये किताब उनके लिए नहीं है जिनमें पतवार के सहारे सागर पार करने का हुनर है, ये उनके लिए भी नहीं है जिन्हें रास आती हैं नक्काशियों से सुसज्जित दीवारें, ये उनके लिए भी नहीं है, जिन्हें भाते हैं क्यारियों में सुसज्जित एक तहजीब से लगे पुष्प-दरख़्त, उनके लिए तो कतई नहीं है जो नहीं भाँप सकते 'दो इतिहास खंडों' के बीच की लुप्त कड़ी, उनके बीच के जीवन-स्तर और जीवंतता में अंतर । ये उनके लिए है जो स्वीकार करते हैं सागर की मौज, जो पतवार चला कर दरकिनार नहीं करते हैं यात्रा का आनंद वरन छोड़ देते हैं नाव को पाल के सहारे फिर हवा ले चलती है नाव को अपने लक्ष्य पर , और वो उठाते हैं यात्रा का आनंद या फिर गोते लगाते हैं समुद्र की दुनियाँ में और सीखते हैं समुद्र की भाषा । यह उनके लिए है जो स्वीकार करते हैं भाग्य की अवधारणा! नहीं नहीं, दिनकर जी वाली नहीं ( सनद रहे भाग्य की अवधारणा बहुत ही गलत प्रस्तुत की गई है हमारे सामने, किन्तु उस पर बात फिर कभी) वह भाग्य की अवधारणा जिससे वास्तव में काम करती है नियति । यह उनके लिए है जिन्हें खुश होने के लिए

जब भी कोई किताब पढ़ता हूँ..

य कीन करो, मैं जब भी कोई किताब पढ़ता हूँ । कोई किताब ! जिसे पढ़ते-पढ़ते ''वायु-अक्षरों'' में उकेरा किन्हीं दुष्यंत-शकुंतला के प्रेम का एक-एक चित्र खिंचता चला जाता है । '' वायु-अक्षर '' इसलिए क्योंकि मात्र महसूस किया जा सकता है उस भाव को जिसके प्रतीक बनाए गए हैं ये शब्द । शब्द, प्रतीक ही तो हैं विचारों के । और विचार उत्पाद हैं भाव के। इसीलिए तो बहुधा जब भावनाओं को व्यक्त करना होता है तो शब्द कम पड़ने लगते हैं, महसूस होने लगता है कि शब्दों की पहुँच भावनाओं तक कतई नहीं है । वास्तव में भाव, शून्य के या मौन के निकटवर्ती हैं, उसकी परिधि के अंतर्गत आते हैं इसीलिए भावनाओं को संवेदनाओं को शून्यता में समझा जाता है । तो, जैसे-जैसे शब्द घुलते जाते हैं, मैं महसूस करता हूँ खुद को और तुम्हें वहाँ, जहाँ मिलते हैं समंदर और आकाश । फिर तुम्हारी गिरती लटों को पहुँचाता हूँ उनके गंतव्य तक , और तब तुम्हारी उठती आँखें जो चाहत का पश्मीना बुनती हैं मेरे लिए , यकीन करो ! वो लिबास सुन्दरतम लिबास है मेरी ख़ातिर । और वो लिबास मुझे दुनियाँ के श्रेष्ठतम व्यक्तियों में से एक बना देता है । क्

जैसे प्रतिपदा से पूर्णिमा तक निखरता है चाँद, वैसे एक एक अदाओं से निखरता है प्रेम

य द्यपि पूर्णिमा से अमावस्या तक चाँद की दीप्ति धूमिल होने लगती है किंतु प्रेम बढ़ता ही जाता है उत्तरोत्तर । प्रेम की अपनी निरंतरता होती है । प्रतिपल उभरता है एक नया रंग । प्रेम का रंग सप्तवर्णी नहीं है वरन आवरण में श्वेत सा है । श्वेत इसलिए क्योंकि उसमें समाहित होते हैं सारे रंग । नहीं, लाल-पीला-नीला आदि नहीं, फिर तो सप्तवर्णी हो जाएगा । इसका रंग यानी आयाम, स्वरूप । आयामतः यह वृत्तीय गुणधर्मिता का है । क्योंकि इसके आयाम अगनित हैं, वृत्त के आयाम कहाँ गिने जा सकते हैं ?  रंगीयता में कहें तो अनंत रंगीय । ऐसे रंगीन जैसे शरद पूर्णिमा का चंद्रमा । लालिमा से युक्त मानवी दृष्टि को समाहित करने में सक्षम । ऐसे रंगीन जैसे किताब के पन्ने और उन पर उकेरे एक एक शब्द । ऐसे रंगीन जैसे सितार की एक धुन और उस पर उंगलियों की थिरकन । ऐसे रंगीन जैसे किसी शरमाती प्रेमिका की भाव-भंगिमाएँ, उसके मुख की रक्तवर्णी रंगत । इस रंग में आगे पूर्णता की ओर बढ़ना ही एक मात्र चाह होती है और अनिवार्यता भी । ठीक वैसे , जैसे वाटरपार्क में बंद स्लाइड के मध्य में ठहराव होने पर एक मात्र उपाय आगे बढ़ना । आनंद भी उसी में है, और नियम

इलाहाबाद विश्वविद्यालय

हमारा विश्वविद्यालय, हमारा विश्वविद्यालय हर एक उम्मीद का आँगन, हर एक विश्वास का आलय, हर एक सपनों को पर देता, हर एक चाहत को बुन देता, बसा माँ गङ्गा के तट पर- है उगते रवियों का आलय । है देता हर परिन्दे को, उड़ाने भी नई, नव लय । हमारा विश्वविद्यालय, हमारा विश्वविद्यालय । -विनय एस तिवारी