मानव ने जितना विकास भौतिक विज्ञान का किया है उतना वैचारिक विज्ञान का नहीं । सोलहवीं सदी के बाद भौतिक विज्ञान ने अभूतपूर्व प्रगति की । प्रत्युत जो भी मानवीय साम्य वैदिक युग या उसके समकक्ष की संस्कृतियों में था और निरंतर चला आ रहा था, वह बौना रह गया । क्योंकि हमने साधन का तो उत्कट विकास किया किन्तु साधन को साधने वाले के मानसिक या वैचारिक विज्ञान पर रंच मात्र भी दृष्टि नहीं डाला, परिणामतः हम भौतिक साधनों और उससे प्राप्य सुखों के हाँथों नाचने वाली कठपुतली बनते दृष्टिगोचर हो रहे हैं । किसी भी मानवीय क्रिया का बीज विचार में ही छुपा होता है । और जब भी वैचारिक विज्ञान को गौण बना कर मात्र भौतिक विज्ञान पर विमर्श किया जाए और उसे पोषित किया जाए तो अवश्य ही यह यात्रा मानव के यंत्र होने की प्रक्रिया का आरंभ है । यही उत्तरदायी है हमारी मानसिक रुग्णता पर । समाज में जिस कदर अनैतिक क्रियाकलापों की उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है, दिनों-दिन छोटी-छोटी बातों पर आत्महत्या में वृद्धि, बलात्कार जैसी कुत्सित क्रियाएँ हो रही हैं, इन सब घटनाओं के गर्भ में कहीं न कहीं यह प्रश्न आकर ठहर जाता है कि, आखिर श्रेष
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