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पुनर्नवा- एक कहानी


 




हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की रचनाएँ अपने आप में श्रेष्ठ रचनाएँ हैं । बात चाहे शब्दों की समृद्धि की हो! या कहानी के आकर्षण की! या फिर पात्रों के शब्दाभिराम वर्णन की!


यह कहानी शुरू ही होती है कला के चर्मोत्कर्ष से, कला के परम् साध्य से । जिस प्रकार एक नृत्यांगना का साधन तो नृत्य है, किन्तु साध्य हैं सतचिदानंद नजराज!

और नृत्य की विशेषता है कि नृत्य नर्तन/नृत्यांगना के साथ ही समाप्त हो जाता है, जबकि कहानियाँ, गीत रह जाते हैं कहानीकार के बिना भी, लोगों की संवाद पर जनश्रुति बन कर । भला नृत्य कहाँ रहता है नर्तक के बिना?


फिर प्रेम के हर रूप दिखते हैं- जहाँ एक ओर चंद्रमौलि का व्यक्ति-चेतना से समष्टि-चेतना का प्रेम है जिससे बन जाता है वह शिव की तरह ‛अवतांगिदास’ ।

दूसरे देवरात का प्रेम, चंद्रा का प्रेम, मृणालमंजरी का प्रेम ।मृणालमंजरी, जिसका प्रेम सर्वोच्च के निकटतम प्रतिष्ठित है ।जिसमें त्याग का उत्कर्ष है । जिसके प्रेम में वात्सल्य रस का भंडार है ।


यही इस पुस्तक की सबसे बड़ी सुंदरता है और सबसे बड़ी विशेषता ही यही है, कि इसमें प्रेम के कई आयाम दिखाए गए हैं ।


किन्तु हाय! इस कहानी का उपसंहार उतना रोचक नहीं लगा! वो इसलिए भी क्योंकि बहुधा पात्रों का मिलाप कहानी से मन में उठी रिक्तिता को पूर्ण करता है ।

किन्तु जिस प्रकार कौतूहल अंत तक बना था वह पूर्ण नहीं हो सका! हो सकता है यह मेरा व्यक्तिगत स्वाद भी कहें! तो मुझे वियोग भी पसंद है, परन्तु उसमें मन मान लेता है कि मिलन होगा ही नहीं । 

मुझे नहीं पता! कि इसका कोई दूसरा भाग भी है कि नहीं? पर जब मिलन हो और कुल इकट्ठा न हो तो एक कसक रह जाती है मन में! पूर्ण न होने की कसक ।


यदि इसे हम छोड़ दें तो यह एक ऐसी शानदार पुस्तक है जो आपको रोचकता के साथ, आनंद के साथ, तीव्र आतुरता के साथ, एक जीवन जीने का दृष्टिकोण भी प्रदान करती है ।

वाकई, पाठक को अंत तक यह कहानी बांध के रखती है ।


अंत में पुस्तकान्त की तरह ‛पुनर्नवा की जय’ ।


- विनय एस तिवारी


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