शिशिर ऋतु की चांदनी रात के आकाश में उड़ता हुआ वायुयान और विज्ञान के इस चमत्कार में उड़ते हुए लोग । वायुयान विज्ञान का चमत्कार ही तो है! भला इस धरती से मीलों दूर ऊपर उसका उड़ते चले जाना ।
एक रात जब मैं शिशिर ऋतु में छत पर टहल रहा था तभी तो देखा था उस वायुयान को चांदनी रात में उत्तर से दक्षिण की ओर चंद्रमा के ठीक मध्य से जाते हुए ठीक रात्रि के बारह बजे । जब वायुयान चंद्र के ठीक बीच में से जा रहा था तब सहसा मुझे लगा कि जैसे: किसी के अपने कहीं दूर जा रहे होंगे अपने किसी सपने के लिए ।
एक ओर उत्साह नए भविष्य के लिए, वहीं दूसरी ओर विरह, किसी अपने का दूर हो जाना । जब हम किसी के साथ जीवन जीते हैं तो उसे अपनी आदत बना लेते हैं इसीलिए जब वह दूर जाता है तो अपना एक अंश छूटता हुआ महसूस होता है । चाहे माता-पिता का पुत्र के लिए हो या पति का पत्नी के लिए हो या अन्य कोई ।
बहुधा माता का पुत्र के लिए या पत्नी का पति के लिए विरह ‘भावनात्मक’ होता है और यही भावात्मकता ही उसका सौंदर्य है । जैसे विरह था माता कौशल्या का पुत्र श्री राम के लिए या उर्मिला का लक्ष्मण के लिए या फिर यशोधरा का सिद्धार्थ के लिए ।
मैंने जाते हुए वायुयान के यात्रियों को शुभकामनाएँ दिया उनके गंतव्य की सफलता के लिए और अज्ञेय की कुछ पंक्ति* गुनगुनाते हुए कहा -‘विदा’ अपरिचित यात्रियों !
* [..मैं ने आँख भर देखा।
दिया मन को दिलासा-पुन: मिलूॅंगा ।
(भले ही बरस-दिन-अनगिन युगों के बाद!)
क्षितिज ने पलक-सी खोली,
तमक कर दामिनी बोली-
'अरे यायावर! रहेगा याद?’ ]
- विनय शंकर तिवारी
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