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लोकमानस के राम

ये लेख सच्चिदानंद मिश्र जी का है जो फिलोसॉफी के प्रोफ़ेसर और विद्वान हैं।
पढ़िए शानदार लेख है.. ।



#लोकमानस_के_राम

कौन से राम को मैं पसन्द करता हूं?
अचानक एक मित्र का प्रश्न मुखपुस्तक (फेसबुक) पर तैरता हुआ दिख गया कि वे कौन से राम हैं जिनको आप पसन्द करते हैं? तुलसी के, कबीर के, गांधी के या एक दल विशेष के? 
सोचता हूं कि क्या राम कई एक हैं? या एक ही राम को अलग अलग लोगों ने अलग अलग रूपों में देखा? वह कौन सा रूप है राम का जिस राम को मैं पसन्द करता हूं ? राम को तुलसी ने भी देखा है तो कबीर ने भी। राम वाल्मीकि के भी हैं तो कालिदास के भी। गांधी के भी हैं और लोहिया के भी। इतना ही नहीं वे राम अल्लामा इकबाल के भी हैं जो उनकी उर्दू कविता में प्रकट होते हैं। राम को कम्बन ने भी देखा है और जैन व बौद्ध कवियों ने भी। एक राम वह भी हैं जो राम की शक्तिपूजा में प्राणवान होते हैं। जो रावण के पराक्रम से पार नहीं पाते तो भयभीत हो जाते हैं और शक्ति प्राप्त करने के लिए शक्ति की आराधना करते हैं। राम के भिन्न भिन्न रूपों को तुलसी ने भी रेखांकित किया यह कहते हुए कि
"नाना भांति राम अवतारा। 
रामायण शत कोटि अपारा।।" 
जब प्रश्न हो कि आप किस राम को पसन्द करते हैं? तो यह प्रश्न सचमुच में यह रूप ले लेता है कि लोकमानस में कौन से राम हैं? वह कौन से राम हैं जिनसे लोकमानस प्रेरणा ग्रहण करता है? वह कौन से राम हैं जिनके चरित्र को जीने के लिए लोकमानस लालायित रहता है? 
वस्तुतः वाल्मीकि रामायण इसी प्रकार के प्रश्न से प्रारम्भ होता है? तपस्या और स्वाध्याय में रत नारद मुनि से वाल्मीकि पूछते हैं? कौन सा मनुष्य इस संसार में अभी ऐसा है जो गुणवान है, वीर्यवान है, धर्म को जाननेवाला है? कृतज्ञ है? सत्य वचन में दृढ़व्रत है? चरित्रवान है? सभी प्राणियों का कौन हित करनेवाला है? आत्मवान है? क्रोध को जिसने जीत लिया है? तेजस्वी है? ईर्ष्या करने वाला नहीं है? किसके क्रोधित हो जाने पर देवता भी भयभीत हो जाते हैं? ऐसे मनुष्य को वाल्मीकि जानना चाहते हैं।
देवर्षि नारद इन प्रश्नों का उत्तर देते हुए राम के बारे में बताना प्रारम्भ करते हैं। ये वही राम हैं जो वस्तुतः लोकमानस के राम हैं? 
जो राम लोकमानस में हैं वो पूरी तरह से तुलसी के नहीं हैं वे कबीर के भी पूरी तरह नहीं हैं, वे वाल्मीकि के राम भी नहीं हैं। तुलसी के राम ईश्वर हैं तो सीता उस राम की माया है और रामायण की पूरी परिघटना ईश्वर की एक लीला के रूप में अभिव्यक्त होती है। कबीर के लिए राम निर्गुण ब्रह्म हैं। वाल्मीकि के राम एक आदर्श मनुष्य हैं। उनको परम्परा ने मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में स्थापित किया। वाल्मीकि के राम कई एक मर्यादाएं स्थापित कर रहे होते हैं। समर्थ होते हुए भी सत्यवचनपालन की मर्यादा, माता पिता की प्रतिज्ञा के पालन की मर्यादा, यद्यपि अनेक स्त्रियों से विवाह शास्त्रीय दृष्टि से तथा लौकिक दृष्टि से उस समय अनुमन्य था तथापि एक पत्नीव्रत धर्मपालन की मर्यादा, राजा के लिए प्रजानुरंजन की मर्यादा। पहले आत्मशासन फिर प्रजा का शासन यानी अनुशासन। अनुशासन का अर्थ ही है पहले अपना शासन उसके बाद दूसरे का शासन। ये वही राम हैं जो बड़ी से बड़ी चुनौती स्वीकार करने के लिए तैयार रहते हैं। आज के नारीवादी चिंतक सीतापरित्याग की बात उठाकर राम की आलोचना करते दिख जाते हैं लेकिन वाल्मीकि रामायण के ये वही राम हैं जो सीता के अतिरिक्त दूसरी किसी स्त्री को अपनी पत्नी का दर्जा नहीं देते, अश्वमेध यज्ञ में सीता ही उनकी पत्नी होती हैं। लोकमानस के राम ईश्वर भी हैं और मनुष्य भी। उस राम में हर पिता को एक आदर्श पुत्र दिखता है तो हर भाई को एक आदर्श भाई। उनमें सुशासन का आदर्श दिखता है तो राम के राजतंत्र में भी सर्वोच्च लोकतान्त्रिक मूल्य दिखते हैं। राम के जीवन त्याग और तपस्या का उच्च मानक दिखता है, तो शबरी के जूठे बेर खाते हुए राम में एक आदर्श समतावादी मनुष्य दिख जाता है। अहल्या का उद्धार करने वाले राम में मानवीय ऐंद्रिक भूलों को क्षमा करने का आदर्श दिखता है, तो राजा राम में ऐसा न्यायप्रिय राजा दिखता है जो केवल मनुष्यों के साथ नहीं बल्कि अन्य प्राणियों के साथ भी न्याय करता है। राम सामने त्रैलोक्यविजयी रावण जैसे अत्याचारी के रहने पर उससे भी जूझने का साहस देते हैं। वैसे भी राम ने सीता को वाल्मीकि के आश्रम में रखा अवश्य था परन्तु वह परित्याग नहीं था। परन्तु लोकमानस के राम तो कभी सीता का परित्याग नहीं करते। राम को ईश्वर मानते हुए भी मनुष्य मान कर चलता है लोकमन। इसीलिए राम के बहुतेरे कार्यों के नैतिक संगत होने पर भी प्रश्न उठाता है और उसका समाधान भी देता है। इसी राम को लोकमानस पसन्द करता है। इसलिए यह प्रश्न बौद्धिक दृष्टिकोण से भले ही अकादमिक महत्त्व का हो परन्तु लोकमानस के लिए निरर्थक, बेमानी और व्यर्थ की जुगाली लगता है।

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